क्या परमात्मा ने संसार में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी इसलिए ही बनाया था? क्या मनुष्य के अंदर से दया, करुणा और मानवता का विलुप्तीकरण हो चुका है? इस प्रकार के सवाल हर अच्छे मनुष्य के हृदय में उठना स्वाभाविक है। आज कल टीवी और अख़बारों में जो न्यूज़ दिखायी जाती है, उससे हृदय विदीर्ण सा हो गया है। सबसे बड़ी दुर्दशा तो उन मासूम जनता और महिलाओं की है जो वास्तविक रूप से दोसी ही नहीं है। विशेषकर महिलाएं जो सदा सेवा भाव को संजोये हुवे समर्पण के साथ अपने पति, बच्चों व अन्य कुटुम्बी के सेवा में दिन - रात सदा लगी रहती हैं। क्या इनकी उपेक्षा समाज में सहनिये है ?
[यत्र नारी पूजयन्ते , रमन्ते तत्र देवता] |
जहाँ पुरुष अपने देश व परिवार के हित के लिए तत्पर होता है वहीँ महिलाएं उनका घर परिवार, माता –पिता , बेटा - बेटी इत्यादि की देखभाल करती हैं। आज किसी भी क्षेत्र में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका देखी जा सकती है , यदि हम इतिहास पलट कर देखें तो ये कभी भी किसी परुष से योगदान में कम नहीं पायी गयी हैं और शायद इसीलिए महापुरुषों ने भी इन्हें बराबरी का दर्जा दिया है।दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है श्रीरामचंद्र जी तो सदा सिंहासन पर सीता जी के ही साथ बिराजे हैं। यदि बात श्री कृष्ण की जाये तो सदैव श्री राधा जी उन्ही के साथ रही हैं। बात महादेव जी की करे तो देखेंगे कि वे एक वैराग्य पूर्ण जीवन में भी भगवती पार्बती जी के साथ बिराजे हैं।
शायद इन महाशक्तियों को यह आभास रहा होगा कि आने वाले भविष्य में मनुष्य के मानसिकता में परिवर्तन होगा और इसलिए इन्होंने अपने शक्ति स्वरूपा देवियों को साथ रखकर मानव को एक शिक्षा का पाठ पढ़ाया। किन्तु दुर्भाग्य है कि मनुष्य सब कुछ भूल गया। मैंने ग्रंथो में पढ़ा है कि " यत्र नारी पूजयन्ते , रमन्ते तत्र देवता " अर्थ यह कि जहाँ पर नारियों को सम्मान मिलता है , उन्हें हैय दृष्टि से नहीं देखा जाता , वहां पर देवताओं का वास होता है।
लेकिन आज कि बदलते स्वररूप ने महिलाओं कि महत्वपूर्ण आस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है और इसका एक मात्र कारण है पुरुष का अहम् कि मैं मर्द हूँ। अरे किस बात कि मर्दानगी जब हम एक औरत कि मान- सम्मान कि रक्षा न कर सके उसकी देख - रेख न कर सके, उसे एक वस्तु कि तरह प्रस्तुत करें यहाँ तक कि हम यह भूल जाएँ कि हमारा जन्म भी किसी स्त्री से ही हुआ है तब किस बात कि मर्दानगी ?
क्या यह कोई खिलौना हैं, कि जब तक जी चाहा खेला और जब जी चाहा फेंक दिया ? माना कि इनमे स्वाभाविक मृदुलता है, यह सहनशीलता कि मूरत हैं, दया और करुणा इनकी मानसिक धरोहर है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम इनका उपभोग और उपयोग करें। सच्चाई तो यह है कि यह पुरुष कि जन्म दाता होने कि नाते इन्हे पुरुषों से ज्यादा अधिकार मिलना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य है जो ऐसा नहीं हो पा रहा है। महिलायें भी उस परम पिता परमेस्वर की ही संतान हैं जिस से पुरुष ने धरती पर जन्म लिया है तब ऐसा भेद भाव क्यों हो?
अब समय आ गया है कि हम इन पर बढ़ते हुए अत्याचारों को रोके उस परमेश्वर से डरें कि आख़िर इन पर ज़ुल्म का हिसाब जब वह माँगेगा तो हम क्या जवाब देंगे। हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। अपने कुत्सित विचारों पर अंकुश लगाना होगा इनको भी अपनी जिंदगी जीने का पूरा अधिकार है। हम अपना विचार इन पर ज़बरदस्ती न थोपें अब चाहे वह कार्य क्षेत्र हो या फिर पहनावा। हमें औरतों की बलिदान को सदा याद रखना चाहिए , जो वह रोज करती हैं चाहे अपने लालसाओं पर अंकुश लगाकर या फिर मन ही मन घुट कर। याद रखें यह पुरुषों से सदा सबल हैं और सक्षम भी । इनका सम्मान ही हमारी मर्यादा है।
और हम पुरषों को भी अपनी मर्यादा में ही रहना चाहिए।